ततार्यचरणौ शरणं प्रपद्ये

भगवती भागीरथी के समान भारतीय ज्ञानपरम्परा ने सहस्राब्दियों से जन-गण की उर्वर मनीषा को आप्लावित करते हुये विज्ञान, साहित्य, दर्शन, कला आदि अनेक धाराओं के माध्यम से मानवता को विकास तथा खुशहाली को विस्तार प्रदान किया है । इस भारतीय मनीषा के अनेक प्रतिनिधि विद्वानों ने ज्ञान- विज्ञान के क्षेत्र में अपने संकल्प तथा संस्कार के अनुसार योगदान प्रदान किया है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा अपने भागीरथी प्रयास से भारतीय ज्ञानपरम्परा के अभूतपूर्व गंगावतरण का महान कार्य करने वाले कनिष्ठिकाधिष्ठित सारस्वत विभूतियों में अग्रगण्य नाम है- प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् ।

हम सभी भगवान् श्रीकृष्ण को जगद्गुरु कहते हैं-“कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्” । भगवान् श्रीकृष्ण के सर्वोपयोगी- सनातन उपदेश में ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग का उपदेश अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रात:स्मरणीय पूज्यआचार्य, दीक्षागुरु, श्रीवैष्णवकुलदिवाकर, प्राचीनऋषिप्रज्ञा के युगीन व्याख्याता, भारत-भारती के वरदपुत्र -तपोमूर्ति प्रो. लक्ष्मीताताचार् भगवद्गीतोक्त इस योग-विज्ञान को अपने मन-वचन तथा कर्म से जीवन में पूर्णतः चरितार्थ करने वाले ज्ञान-कर्म-भक्तियोग के समवेत साधक- महापुरुष थे ।

प्रो. एम.ए. लक्ष्मीताताचार् स्वामीजी ने ज्ञान, कर्म तथा भक्तियोग के द्वारा अपने जीवन एवं अनुकरणीय जीवन-दृष्टि से जिज्ञासुओं के ह्रदय में प्राचीन भारतीय ज्ञान- विज्ञान और जीवनमूल्यों के प्रति गहरी आस्था के दीप को आलोकित किया है। कर्नाटक राज्य में मेलुकोटे नामक स्थान पर प्रो. एम.ए. लक्ष्मीताताचार् बीसवीं- इक्कीसवीं शताब्दी में भारतीय ज्ञान- विज्ञान की परम्परा का अन्वेषण- अनुशीलन और प्रकाशित करने वाले ज्ञानदीप के कालजयी स्तम्भ थे। ज्ञानस्तम्भ के इस आलोक में अपना मार्ग सुनिश्चित करते हुए भारतीय ज्ञान परम्परा के समाराधक अनेक जिज्ञासुओं, शिष्यों ने अपने वांछित लक्ष्य अर्जित किये तथा अभीष्ट फल प्राप्त किये हैं। ऐसे ही जिज्ञासुओं मे से एक मैं भी रहा हूँ । लगभग 25 वर्षों से निरन्तर वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद, स्नेह, सम्मान, जीवनदृष्टि, ज्ञान- कर्म- उपासना के संस्कार प्राप्त करने, अपने आचार्य का अभिधान और अभिमान धारण करते हुए मैं सविनय कह सकता हूँ की प्रो. एम.ए. लक्ष्मीताताचार् स्वामीजी से मेरा सम्बन्ध तथा सम्पर्क जन्मान्तरीय है। महर्षि यास्क ने आचार्य पद का जो निर्वचन दिया है उसे स्वामीजी ने चरितार्थ किया तथा अपने शिष्यों को जीवन जीने की पद्धति सिखाई।

राजस्थान विश्वविद्यालय के शोधछात्रों के एक अध्ययन दल का नेतृत्व करते हुये 1997 में अपने सुपरवाइजर प्रो. प्रभाकर शास्त्रीजी और विभागीय शिक्षक प्रो.सुभाष तनेजा के साथ एकेडेमी आफ संस्कृत रिसर्च मेलकोटे (कर्नाटक) में मैंने आपका प्रथम दर्शन किया । मैंने देखा प्रो. एम.ए. लक्ष्मीताताचार् धवलवस्त्रधारी, विशालबाहु, स्मितहास वाले मस्तक पर ऊर्ध्वपुण्ड्र-सुशोभित अत्यन्त सौम्य, शान्त, गरिमापूर्ण और गम्भीर व्यक्तित्व के धनी थे । उन्होंने शोधार्थियों की जिज्ञासाओं तथा प्रश्नों का एकेडेमी के संस्थापक और तत्कालीन अद्भुत समाधान किया । विद्यार्थियों के समूह को उन्होंने भारतीय ज्ञान विरासत तथा प्राचीन और परम्परागत वैज्ञानिक चिन्तन के वैभवशाली इतिहास से परिचित कराया । उसी क्षण मुझे आभास हुआ कि अपने गन्तव्य, लक्ष्य और कर्मक्षेत्र का उद्देश्य प्राप्त हो गया है। इस लक्ष्य तथा उद्देश्य को प्राप्त कराने वाले आचार्य-शिक्षक तथा गुरु की खोज भी पूर्ण हो चुकी थी । प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् के रूप में एक विराट् व्यक्तित्व, महामानव, भारतीय ऋषि और ज्ञान परम्परा के प्रतिनिधि विद्वान ने मुझे मार्गदर्शन प्रदान कर सदा के लिए उद्देश्यपूर्ण जीवन की दिशा प्रदान की। अध्ययन यात्रा के अनन्तर राजस्थान शासन में कालेज शिक्षा विभाग में सहायक आचार्य के रूप में चयनित हुआ तथा अलवर नगर में नियुक्ति प्राप्त की । अपनी जीवनसंगिनी डा. स्मिता शर्मा के साथ पुनः मेलकोटे (कर्नाटक) में स्वामीजी के सम्मुख उपस्थित हुआ तभी करुणापूर्ण आचार्य ने मुझे सपत्नीक श्रीवैष्णव-दीक्षा प्रदान की। आपने भक्तिमंदाकिनी में नित्य अवगाहन की निपुणता सिखाई । आचार्यानुग्रह से भागवत सम्बन्ध प्राप्त कर रामानुजदास के रूप में मेरा पुनर्जन्म हुआ। अलवर नगर में अपने कर्मक्षेत्र तथा वर्तमान में महाराणा प्रताप और मीरां की पावन भूमि मेवाड़ में विश्वविद्यालय प्रोफ़ेसर के रूप में भारतीय ज्ञान परम्परा के संरक्षण, विकास और विस्तार के संकल्प के साथ रामानुजार्यदिव्याज्ञा अभिवर्धन केलिए सदैव प्रयत्नशील हूँ ।

पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् ने एक आचार्य, शिक्षक, गुरु के रूप में हमें अपने उपदेश से अधिक अपने अनुकरणीय आचरण के द्वारा अधिक प्रशिक्षित किया। एकेडेमी आफ संस्कृत रिसर्च की स्थापना तथा प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार्य के द्वारा भारतीय ज्ञान परम्परा के लोकोपयोगी तथा प्रासंगिक वैज्ञानिक पक्ष का उद्घाटन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं कालजयी कार्य रहा है। संगणकविद्या, वैमानिकीविद्या, कृषिविद्या, धातुविद्या, आयुर्विज्ञान, छन्द तथा कोश एवं भाषाशास्त्र आदि अनेक प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान के आयामों का व्यवस्थित अध्ययन- अनुसंधान आपके कुशल नेतृत्व में होता रहा है। प्राचीन पाण्डुलिपियों के संग्रह, संरक्षण, अनुसन्धान एवं प्रकाशन के सम्बन्ध में भी आपके कार्य सदैव अविस्मरणीय हैं। प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् का व्यक्तिव शुद्ध सत्वगुण सम्पन्न है। सत्य के प्रति अगाध आस्था तथा दिव्य प्रशान्त स्वभाव आपके भीतर महान वैचारिक मूल्यों को निरन्तर उत्पन्न करता रहते रहते है। महान् विचार कर्म की उर्वर भूमि में पनपते है अतः अपने कर्मानुष्ठान- अहर्निश कर्मशीलता के कारण ये विचार आकार ग्रहण करते हैं। एकेडेमी आफ संस्कृत रिसर्च, संस्कृति फाउन्डेशन, वर्चुअल ज्ञानपीठ, गौतम एकेडेमी आदि अनेक संस्थाएँ आपके विचारों के ही आकार-परिणाम है। आपने मेलकोटे की प्राचीन श्री वैष्णव परम्परा का यशस्वी ध्वज पूरे देश में फहराया । अत्यन्त हर्ष का विषय है कि जहाँ भगवान रामानुजाचार्य ने तेरह वर्ष निवास किया तथा श्रीभाष्य की रचना की, जहाँ सामाजिक आध्यात्मवाद के महान् जनक और पृथ्वी पर भक्तिगंगा को प्रवाहित करने वाले, द्रविड़ आलवार परम्परा मणिमाला के सुमेरु जगदगुरु रामानुजाचार्य ने साधना की ऐसे स्थान मेलकोटे दक्षिण बद्रीकाश्रम को अपने ज्ञान, कर्म तथा भक्ति योग की सतत अविश्रान्त साधना के द्वारा पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् ने बीसवीं शताब्दी में पुन: प्रतिष्ठा प्रदान की । हम उत्तरभारतीय अध्यापकों, शोधार्थियों, विद्योपासकों तथा श्री वैष्णव परम्परानुयायी जनों का दक्षिण बद्रिकाश्रम तीर्थ मेलकोटे से परिचय कराने वाले पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् ही है।

भगवान श्रीकृष्ण ने जिस योग-साधन के द्वारा अपने ऐहिक तथा पारलौकिक अभीष्ट फलों की प्राप्ति का उपदेश दिया उस ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग को अपने जीवन में धारण करने वाले जीवन्त समत्वमूर्ति हैं मेरे अभिवन्द्य आचार्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार्। सनातन वैदिकधर्म के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिये आपने स्वयं को समर्पित किया है। आपने अपने आचार-विचार-व्यवहार-वाणी-लेखन-सम्पर्क-सम्बन्ध सभी के द्वारा सर्वत्र चन्दन के समान शीतल सुगन्धित सत्वगुण से परिपूर्ण व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी है। प्राचीन भारतीय ज्ञानपरम्परा के सार्वभौम, सार्वकालिक, सार्वजनीन तत्वों के अध्ययन-अनुसंधान और प्रकाशन के द्वारा संरक्षित कर उसे जनसुलभ बनाने का महनीय कार्य किया है। आपने भगवान रामानुजाचार्य के सामाजिक समानता- समरसता के वैश्विक दृष्टिकोण तथा समतामूलक जीवनदर्शन, भगवद् उपासना के द्वारा जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के महान् उपदेश का प्रचार-प्रसार किया है । आपने न केवल प्रस्थानत्रयी के श्रीभाष्य का सम्पादन किया अपितु भगवान् रामानुजाचार्य के भी जीवन तथा दर्शन का लेखन प्रकाशन किया है। विशिष्टाद्वैत दर्शन के सूक्ष्म तत्वों का अनुसन्धान कर उसके व्यावहारिक स्वरूप को अपने स्वयं के जीवन में प्रतिष्ठित करने के बाद उसकी शिक्षा और उपदेश से अन्य सैंकड़ो लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन किया है । ईश्वर-संहितादि अनेक दुर्बोध्य, दुष्प्राप्य महान् ग्रन्थों का आपने सम्पादन और प्रकाशन किया है। आपकी अहर्निश ज्ञानोपासना के द्वारा न केवल सम्पूर्ण भारत में अपितु अनेक देशों में आपके द्वारा पथ-प्रदर्शन प्राप्त करने वाले अनुयायी, शोधकर्ता और प्रशंसक अध्येता हैं। ज्ञानयोग के द्वारा प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् ने अपने जीवन में व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सार्वजनिक जीवन में अद्भुत समत्व की स्थिति को प्राप्त किया । जीवन में कालचक्र के द्वारा घटित भारी संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में आप पर्वत की भांति अडिग रहे तथा अपने मन-वचन और कर्म से ज्ञानोपासना के संकल्पों को साकार करने में प्रयत्नशील रहे ।

पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् आज भी जिज्ञासु अध्येताओं को अपने ज्ञानामृत से तृप्त करते हुये आनन्दित होते है । शास्त्र सम्पदा के संरक्षण, शोध तथा विस्तार के लिये आप अनवरत चिन्तित रहते है तथा शोधकर्ताओं को यथोचित मार्गदर्शन प्रदान करते है। भगवान रामानुज के समान भगवदीय अभिवृति तथा आचरण के द्वारा श्री वैष्णव जीवन दर्शन तथा विशिष्टिाद्वैत दार्शनिक परम्परा को संरक्षित तथा सवंर्धित करने के कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते है। आत्मतत्व के अभिज्ञान और जीव तथा ब्रह्म के विशिष्ट अद्वैत की व्यावहारिक-शिक्षा प्रदान करने वाले आप अन्यतम आचार्य है। अध्यात्म तथा विज्ञान का अपूर्व समन्वय स्थापित करने वाले मेरे आचार्य पूज्य गुरुवर प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् ने अपने कृतित्व से भगवान् श्री कृष्ण के कर्मयोग उपदेश को सार्थक किया है। आपके कर्मानुष्ठान भारतीय ज्ञान परम्परा के कालजयी वैभव के जीवन्त स्मारक है । मेलकोटे एकेडेमी, संस्कृति फाउन्डेसन, ऋषि-कृषि पद्धति, आयुर्वेद संस्थान, शास्त्र संरक्षण से सम्बन्धित स्थावर अचल संस्थानों को आकार प्रदान करने के साथ-साथ आपने प्रो. एम. ए. अल्वार, डा. रामप्रियन् और मेरे जैसे अनेक शिष्यों को आपकी ज्ञान परम्परा में शिक्षा और दीक्षा प्रदान की है जो सर्वात्मना आपके जीवन तथा विचारों से प्रेरणा ग्रहण कर कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

मेलकोटे कर्नाटक से सुदूर उत्तर में जयपुर (राजस्थान विश्वविद्यालय) से गए अनेक शोधछात्रों के जीवन पर आपके व्यक्तित्व और कृतित्व का ऐसा प्रभाव पड़ा कि आपने उनके जीवन की दिशा बदल दी। अनेक छात्र आपके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिये सन्नद्ध हुए । आपका अनुग्रह ही सर्वोपरि शक्ति तथा उपदेश ही जीवन का विधान बन गया । एक आचार्य में ही वह ईश्वरीय सामर्थ्य होता है कि वह अपना ज्ञानमय स्वरूप, कर्ममय स्वरूप तथा भक्तिमय स्वरूप अपने किसी अन्तेवासी शिष्य तथा किसी उत्तराधिकारी को प्रदान कर सकता है। आपकी ज्ञान-सम्पदा तथा कर्मोपासना के सत्य उतराधिकारी प्रो. एम्. ए. आलवार है जो निरन्तर आपकी प्रेरणा से भगवती सुरभारती के श्रीकोश में अभिवृद्धि कर रहे हैं।

जिस अविछिन्न भावधारा के द्वारा पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् के अपनी ज्ञान तथा कर्म की साधना को सिंचित-पुष्पित-पल्लवित किया है वह महती भावधारा भक्ति है । योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जो मानव जीवन की सफलता का चरम उपाय बताया है वह मेरे आचार्य के व्यक्तित्व-कृतित्व से प्रतिक्षण-प्रतिपद उपस्थित रहता है। श्री वैष्णव अनन्तश्रीविभूषित अनन्तालवार की यशस्वी परम्परा के सम्वाहक होने से भक्तियोग ने आपके रोम-रोम को सुवासित किया है। पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् जब भागवद् उपदेश, कृष्ण, रामकथादि प्रसंगों पर वाल्मीकि, व्यास, कम्बन् आदि के अनेक सन्दर्भों के साथ तमिल, कन्नड़, संस्कृत, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में जब साधिकार चर्चा करते है तो भगवदीय प्रेमाश्रु आपके नेत्रप्रान्तों को पवित्र करने लगते हैं। आपके श्रीचरणों में बैठकर अनेक बार द्रविड़ आल्वार भगवदीय प्रसंगों के श्रवण का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ हैं। जब भी मैं स्वामीजी को सुनता हूँ, तो यही कहता हूँ कि “स्वामीजी ! मुझे अपने चरणों में नित्य आश्रय प्रदान करें, मैं मेलकोटे में ही रहना चाहता हूँ ।“ मेरा यह अनुभव है कि भक्ति के संस्कार भगवत् भक्तों सिद्ध उपासकों की सन्निधि से स्वयमेव आ जाते है। इस प्रकार गुरुकृपा के रूप में ईश्वरीय कृपा तथा भगवान रामानुज का साक्षात् कृपाप्रसाद प्राप्त भी हो जाता है।

पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् भक्ति के इसी संस्कार के द्वारा उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत की वैष्णव परम्परा का सेतुबन्धन कर दिया है। उत्तरभारत में राजस्थान, हरियाणा, उत्तरांचल, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ व्यापक कार्य करने वाले अनेक रामानुजीय सन्त-महन्त सदैव आपके सान्निध्य और सम्पर्क से सुख का अनुभव करते थे । आपकी महनीय उपस्थिति से धार्मिक आयोजनों की शोभा बढ़ती थी तथा आपके उपदेश से हजारों-लाखों लोगों के जीवन में भगवद् प्रेम का संस्कार प्रबल हो जाता था । श्री मधुसूदन सेवा आश्रमअलवर राजस्थान में आपकी प्रेरणा सेसन 2004 में श्रीमधुसूदन चतुर्वेद विद्यालय की स्थापना की गई । यह विद्यालय चारों वेदों की परंपरागत सस्वर वेदपाठ की शिक्षा प्रदान करने वाला एक आदर्श वेद विद्यालय है। आपके द्वारा गोवंश के संरक्षण और भारतीय देशी नस्लों के विकास के लिए अनेकशः प्रयास किए गए । अलवर की गोपाल गोशाला में देशी गायों की सेवा और चारों वेदों की पाठ परम्परा के संरक्षण के महान् कार्य सम्पन्न हो रहा है।

देश की राजधानी दिल्ली सहित सम्पूर्ण देश और विदेशों में भी आपकी साधना के साक्षी और प्रशंसक अनेक विद्वान, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारीगण, भारतीय संस्कृति में आस्थावान नेतागण, शोधकर्ता और शिक्षकगण मौजूद है जो सदैव आपके उपदेश के आकांक्षी रहते थे। युगद्रष्टा- वैज्ञानिक, जननायक-राष्ट्रपति भारतरत्न डॉ एपीजे अब्दुलकलाम भी आपके प्रशंसकों पंक्ति को पावन करते थे ।

देश की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत भारतीय ज्ञानपरंपरा के उपयोगी और वैज्ञानिक आयामों का संरक्षण करने तथा उनके अध्ययन और अनुसंधान को प्रोत्साहन दिया गया है। दशकों पहले प्रोफेसर एम ए लक्ष्मीताताचार्य के द्वारा प्राचीन भारतीय ज्ञान -विज्ञान और स्थानीय-देशज ज्ञान परंपराओं के संरक्षण के लिए गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। एकेडमी ऑफ संस्कृत रिसर्च मेलकोटे की स्थापना के मूल में भी संभवत: उद्देश्य रहा । भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित किया।

पूज्य प्रो. एम. ए. लक्ष्मीताताचार् का व्यक्तित्व और कृतित्व ज्ञान- कर्म और भक्तियोग का त्रिवेणी संगम है जिसके पावन सान्निध्य और अवगाहन से जीवन में ऐतिहासिक आत्माभिमान, अपनी ज्ञान परम्परा – संस्कृति, सनातन जीवन मूल्यों के प्रति आस्था, विश्वास, प्रेरणा और जागृति उत्पन्न होती है और इन सबसे बढ़ कर एक हिन्दु और भारतीय होने पर गर्व होता है ।